Tuesday, June 4, 2013

ब्रह्मलीन आचार्य महामण्डलेश्वर निर्वाणपीठाधीश्वर श्री श्री १००८ स्वामी विश्वदेवानन्द जी की श्री अनंतबोध चैतन्य के साथ वार्तालाप के कुछ अंश ---






महाराज श्री से जन्म समय तथा जन्म स्थान के  बारे मे पूछने पर महाराज श्री का बडा सारगर्भित उत्तर-
पूज्य महाराज  जी फ़रमाते हैं कि साधु का परिचय जन्म के साथ नहीं होता ,साधु अपनी मृत्यु से परिचय  देता हैं। उसका कर्त्तृत्व ही समाज के लिये प्रेरक होता हैं।  वह अपनी समसायमिक व्यवस्था के साथ आने वाली भविष्य की पीढियों के प्रति भी कर्तव्यबोध तथा प्रयोग के द्वारा जीवन के महत् उद्देश्यों व मूल्यों की विरासत प्रस्तुत करता हैं। साधु अपनी मृत्यु के साथ  भी कुछ दे जाता है।यही कारण है कि महात्मा की मृत्युतिथि महोत्सव के रुप मे देखी जाती है, जिससे प्रेरणा लेकर जीवन को उत्सव की भांति जी सके। पुनः इसी प्रश्न के सन्दर्भ में महाराज श्री ने कहा कि जगन्मिथ्यात्त्व के दर्शन में समाहित हुई  आत्मचेतना  स्वयं के परम लक्ष्य ब्रह्मभाव में स्थिति के साथ देह और देह सम्बन्धी व्यवस्थाओं  को लौकिक व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में गौण मानती हुई उस पर ज्यादा चर्चा करने और सुनने में उत्सुक नहीं होती।
यथार्थ जगत् की अपनी एक सत्ता है किन्तु वह बाधित है।जीवन की अनिवार्यता तो उसमें है लेकिन सहज व अन्तिम स्थिति नहीं है। अतःएव उसे गौण रुप में देखते हुए परम लक्ष्य मे प्रतिष्ठित  होना ही दृष्टि का प्रधान  विषय होता है। यही कारण है कि दैहिक व्यस्थाओं मे ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष  की सन्निष्ठा महत्त्व का दर्शन नहीं करती।यही दृष्टि का आधारभूत दर्शन है, जो महापुरुष को सामान्य लौकिक व्यक्ति से अलग करता है । लोक में रह कर भी वह अलौकिक रहता हैं। साधुता के इसी मर्म के साथ साधु सही अर्थों मे साधु होता है एवं साधुता की साधना सिद्ध अन्तिम मञ्जिल तक पहुंचता  है। दैहिक तल पर  कर्त्तृत्व और इस तल से जुड़े हुए वह जन्मादि को ज्यादा प्रशांसित नहीं करता, इस अर्थ मे जयंती आदि के कार्यक्रम भी उसे आकर्षित नहीं कर पाते, दैहिक परिचयों के भूमि से वह अलग होता है बाध्यता है कि वह जगत मे होता है, क्योकि यह ईश्वरीय  व्यवस्था है । सुख-दुख की विभिन्न परिस्थितियों में समता बोध के साथ जीता हुआ सब कुछ सहज से अपनाता हुआ, सत्य ब्रह्म की उर्ध्व   भूमि में समासीन  रहता है। इस अर्थ में दैहिक परिचय उपेक्षणीय मानता है। भक्त, अपनी आस्था से कुछ भी करें श्रध्दा की भाषा और  भावना में किसी भी स्तर से मान की भूमिका  बनायें  लेकिन महापुरूष अमान और उन्मन ही रहते हैं।
सन्देश - आत्मस्थिति अर्थात् ब्रह्मात्मैक्यस्थिति का बोध यही जीवन का परम लक्ष्य  है। जिस लक्ष्य का सन्देश वेदवेदान्त विभिन्न-घोषणाओं के द्वारा देते चले आ रहे  है प्राप्त गुरुज्ञान से उसकी अनुभुति तथा स्मृति बनाये रखते हुये अपनी प्राप्त क्षमता  तथा योग्यता के साथ  ईश्वरीय चेतना के प्रकाश में  व्यक्ति सत्कर्मों का अनुष्ठान करता हुआ सहज दोषों से अपने को अलग रखने का दृढ संकल्प रखें। सत्य एवं सदाचार का अनुसरण करें ।
संकलनकर्ता --- श्री अनन्तबोध चैतन्य

Sunday, June 2, 2013

ब्रह्मलीन निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री विश्वदेवानंद जी महाराज का संक्षिप्त परिचय



               श्री  अनंतबोध चैतन्य गुरु जी कि सेवा में .
जन्म स्थान
         स्वामी श्री का जन्म सन् २६ जनवरी १९४६ ईस्वी में कानपुर, उत्तर प्रदेश के एक नौगवां, (हरचंदखेड़ा) में सनातनधर्मी कान्यकुब्ज ब्राह्मण ' विश्वनाथ शुक्ला जी के परिवार में हुआ |   बचपन में उनका नाम ‘कैलाशनाथ शुक्ला ' रखा गया |
वैराग्य : स्वामी श्री ने सत्य की खोज में  १६ वर्ष की अल्पायु में गृहत्याग कर दिया | वस्तुतः उसके  बाद  वह कभी घर लौट कर नहीं गये और न ही किसी प्रकार का घर से सम्बन्ध रक्खा | उसी वर्ष नैमिषारणय के पास दरिया पुर गाव में स्वामी सदानंद परमहंस जी महाराज जी से साधना सत्संग की इच्छा से मिलने गये | वहां उन्होंने अनेक प्रकार कि साधनाए सीखी और उनमे पारंगत हुए  |
अध्ययन : स्वामी जी ने निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री कृष्णानन्द जी महाराज श्री जी के सानिध्य में संन्यास आश्रम अहमदाबाद में व्याकरण शास्त्र, दर्शन शास्त्र, भागवत, न्यायशास्त्र, वेदांत आदि का  अध्ययन  किया |फिर देहली विश्वविद्यालय से आंग्ल भाषा में स्नातकोत्तर की उपाधि ग्रहण की |
 
तपो जीवन : २०  वर्ष की आयु से हिमालय गमन प्रारंभ कर अखंड साधना, आत्मदर्शन,धर्म सेवा का संकल्प लिया | पंजाब में एक बार भिक्षाठन करते हुए स्वामी जी को किसी विरक्त  महात्मा ने विद्या अर्जन करने कि प्रेरणा की  | एक ढाई गज कपरा एवं दो लंगोटी मात्र रखकर भयंकर शीतोष्ण वर्षा का सहन करना इनका १५  वर्ष की आयु में ही स्वभाव बन गया था | त्रिकाल स्नान, ध्यान, भजन, पूजन, तो चलता ही था | विद्याधययन की गति इतनी तीव्र थी की संपूर्ण वर्ष का पाठ्यक्रम घंटों और दिनों में हृदयंगमकर लेते |
 
संन्यास ग्रहण : स्वामी जी सन १९६२ में परम तपस्वी निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री अतुलानंद जी महाराज श्री से बिधिवत संन्यास ग्रहण कर नर से नारायण  के रूप हो  हुए | तभी से पूर्ण रूप से सन्यासी बन कर "परमहंस परिब्राजकाचार्य १००८ श्री स्वामी विश्वदेवानंद जी  महाराज" कहलाए |
 
देश और विदेश यात्राएँ : सम्पूर्ण देश में पैदल यात्राएँ करते हुए  धर्म प्रचार एवं विश्व कल्याण की भावना से ओतप्रोत पूज्य महाराज जी प्राणी मात्र की सुख शांति के लिए प्रयत्नशील रहने लगे  |  उनकी दृष्टि में समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर भगवान के अंश हैं या रूप हैं | यदि मनुष्य स्वयं शांत और सुखी रहना चाहता है तो औरों को भी शांत और सुखी बनाने का प्रयत्न आवश्यक है उन्होंने जगह जगह जाकर प्रवचन देने आरम्भ किये और जन जन में धर्म और अध्यात्म का प्रकाश किया उन्होंने सारे विश्व को ही एक परिवार की भांति समझा और लोगो में वसुधैव कुटुम्बकम की  भावना का  बीज वपन किया और कहा कि इससे सद्भावना, संघटन, सामंजस्य बढेगा और फिर राष्ट्रीय, अन्तराष्ट्रीय तथा समस्त विश्व का कल्याण होगा |

निर्वाणपीठाधीश्वर के रूप में : सन १९८५ में पूज्य निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री अतुलानंद जी महाराज श्री के ब्रह्मलीन होने का पश्चाद् स्वामी जी को समस्त साधू समाज और श्री पंचायती अखाडा महानिर्वाणी के श्री पञ्च ने गोविन्द मठ कि आचार्य गादी पर बिठाया|
श्री यन्त्र मंदिर का निर्माण : 1985 में महानिर्वाणी अखाड़े के आचार्य बनने के बाद १९९१ में हरिद्वार के कनखल क्षेत्र में महाराज श्री ने विश्व कल्याण की  भावना से विश्व कल्याण साधना यतन की स्थापना की उसके बाद सन २००४ में इसी आश्रम में भगवती त्रिपुर सुन्दरी के अभूतपूर्व मंदिर को बनाने का  संकल्प लिया और सन २०१० के हरिद्वार महाकुम्भ में महाराज श्री का संकल्प साकार हुआ. सम्पूर्ण रूप से श्री यंत्राकार यह लाल पत्थर से निर्मित मंदिर अपने आप में महाराज श्री की कीर्ति पताका  को स्वर्णा अक्षरों में अंकित करने के लिए पर्याप्त है.
शिष्य एवं भक्त गण : महाराज श्री के हजारो नागा संन्यासी शिष्य हुए उनके तीन ब्रह्मचारी शिष्य हुए उनमे से प्रधान  शिष्य श्री  अनंतबोधचैतन्य जो देश विदेश में उनके संकल्पों को पूरा करने में तत्पर है और अध्ययन और अध्यापन में लगे रहते है महाराज श्री ने उनको २०१० में  गोविन्द मठ की  ट्रस्ट में ट्रस्टी के रूप में भी रक्खा| दुसरे  शिष्य शिवात्म चैतन्य जो पठानकोट के आश्रम को देखते है तथा अंतिम तथा तीसरे ब्रह्मचारी  शिष्य निष्कल चैतन्य कढ़ी कलोल के आश्रम को देखते है | महाराज जी के लाखो भक्त गण हुए जिनमे से कोलकता के श्री लक्ष्मी कान्त तिवारी जी अग्रगण्य है | उनके शिष्य अहमदाबाद , दिल्ही बरोडा कोलकाता आदि भारत के सभी शहरों में और  विदेश में अमेरिका , इंग्लेंड , ऑस्ट्रेलिया ,बैंकाक , कनाडा यूरोप तथा अफ्रीका में  लाखों शिष्य महाराज श्री को अपना प्राण धन मानते है.
ब्रह्मलीन : ७ मई २०१३ को हरिद्वार के लिए आते हुए  एक भीषण दुर्घटना में महाराज श्री के प्राण व्यष्ठी से समष्टि में विलीन हो गए | उनके नश्वर पार्थिव शरीर को श्री यन्त्र मंदिर के प्रांगन में रुद्राक्ष के वृक्ष के नीचे श्री भगवती त्रिपुर सुन्दरी की  पावन गोद में भू समाधी दी गई|

         
समाज सेवा में रत, सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय, विश्व के कल्याण का उद्घोष देने वाले भारतीय वैदिक सनातन भावना के अजस्त्र, अवोध, अविरल गति से प्रचार में समस्त जीवन अर्पण करने वाले देव - तुल्य सन्यासी, शास्त्री महारथी, ओजस्वी वक्ता, प्रकाण्ड पंडित, युगदृष्टा श्री निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री विश्वदेवानंद जी महाराज को कोटि - कोटि प्रणाम |



Thursday, September 1, 2011

रजत जयंती समारोह

परम पूज्य निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महा मंडलेश्वर स्वामी श्री विश्वदेवा नन्द जी महाराज के निर्वाण पीठ पर विराजमान  हुये २५ वर्ष पूरे हुये । उस समय बड़ा भव्य कार्यक्रम संन्यास आश्रम एलिस ब्रिज , अहमदाबाद मे सम्पन्न हुआ । जिसमे देश विदेश के सैकड़ो साधक भक्तों ने महाराज श्री और इस दिव्य कार्यक्रम का दर्शन लाभ लिया । तीन दिवसीय इस कार्यक्रम मे भजन संगीत , संत सम्मेलन एवं विशाल भंडारे का आयोजन हुआ । पेश है भूतकाल की एक  सुंदर तस्वीर ।

कुछ पुरानी यादें

 
 
In the auspicious of Maha Kumbh, 2010, a matchless confluence of Spiritual Gurus made history by coming together at one single platform to bestow their blessings and benedictions on the magnificent arrival of Sadhna News TV Channel in the Devbhoomi of Uttarakhand  after making unprecedented success as an undisputed No. 1 TV Channel of Madhya Pradesh, Chhattisgarh, Bihar and Jharkhand.A Divine confluence of Guests of Honour who graced the occasion were Nirvana Pithadhishwara Acharya Mahamandaleshwar Vishwadevanand Ji Maharaj, Swami Maheshwaranand Ji and Other many sants.