ॐ नमो नारायणाय
सत्संग भवन,कोलकता में पूज्य चरणों के सानिध्य में अनंतबोध
काषायवस्त्रभूषाय
मालारुद्राक्षधारिणे
।
श्रीविश्वदेवसंज्ञाय वेदांत गुरवे नमः ।।
बड़े दुःख के साथ सूचित किया जाता है कि इस बार की गुरु
पूर्णिमा गुरु जी के पार्थिव शरीर के साथ न मना कर अपितु समष्टि में व्याप्त
गुरु तत्त्व के साथ मनाई जाएगी। हमारे पूज्य गुरुदेव ०७ मई २०१३ को व्यष्टि से समष्टि में
समाहित हो गए। वो हमारे गुरु ही नहीं अपितु
प्राण धन ही थे । आज गुरु जी के न रहने से उनकी महिमा समझ में आ रही इसीलिए मै
अनंतबोध बहुत ही पुराने समय से चली आ रही गुरु महिमा को शब्दों में लिखा ही नही
लिख पा रहा हु । संत कबीर भी कहते हैं कि –
सब धरती कागज करू, लेखनी सब वनराज।
सात समुंद्र की मसि करु, गुरु गुंण लिखा
न जाए।।
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता
जान।।
गुरु पूर्णिमा के पर्व पर अपने गुरु को सिर्फ याद करने का प्रयास
है। गुरू की महिमा बताना तो सूरज को दीपक दिखाने के समान है।
अवगमयति कृत्याकृत्यभेदं गुरुर्यो
भवजलनिधिपोतस्तं विना नास्ति कश्चित्।।
विदलयति कुबोधं बोधयत्यागमार्थं
सुगति कुगति मार्गौ पुण्यपापे व्यनक्ति।
अर्थात् : सच्चा गुरु हमारे मिथ्या बोध को नष्ट
कर देता है और हमें शास्त्रों के सच्चे
अर्थ का बोध करा देता है। सुगति और कुगति के मार्गों तथा
पुण्य और पाप का भेद प्रकट कर देता है, कर्तव्य और अकर्तव्य का भेद समझा देता
है, उसके बिना और कोई भी हमें संसार
सागर से पार नहीं कर सकता।
गुरू शिष्य का संबन्ध सेतु के समान
होता है। गुरू की कृपा से शिष्य के लक्ष्य का मार्ग आसान
होता है। गुरु हमारे अंतर मन को आहत किये बिना हमें
सभ्य जीवन जीने योग्य बनाते हैं। दुनिया को देखने का नज़रिया
गुरू की कृपा से मिलता है।
गुकारस्त्वन्धकारश्च रुकारस्तेज उच्यते ।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः ।।- श्री गुरुगीता |
अर्थ : ‘गु’ अर्थात अंधकार अथवा अज्ञान एवं ‘रु’ अर्थात तेज, प्रकाश
अथवा ज्ञान । इस बातमें कोई संदेह नहीं कि गुरु ही ब्रह्म हैं जो अज्ञानके
अंधकारको दूर करते हैं । इससे ज्ञात होगा कि साधकके जीवनमें गुरुका महत्त्व अनन्य
है । इसलिए गुरुप्राप्ति ही साधकका प्रथम ध्येय है । गुरुप्राप्तिसे ही
ईश्वरप्राप्ति होती है अथवा यूं कहें कि गुरुप्राप्ति होना ही ईश्वरप्राप्ति है,
ईश्वरप्राप्ति अर्थात मोक्षप्राप्ति- मोक्षप्राप्ति अर्थात
निरंतर आनंदावस्था । गुरु हमें इस अवस्थातक पहुंचाते हैं । शिष्यको जीवनमुक्त
करनेवाले गुरुके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनेके लिए गुरुपूर्णिमा मनाई जाती है । गुरु शब्द की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार
से की जा सकती है।
जैसे -१. 'गिरति अज्ञानान्धकारम् इति गुरु:'
अर्थात: जो अपने सदुपदेशों के माध्यम से शिष्य के
अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट कर देता
है, वह गुरु है।
२
. 'गरति सिञ्चति कर्णयोज्र्ञानामृतम् इति गुरु:'
अर्थात: जो शिष्य के कानों में ज्ञानरूपी अमृत का
सिंचन करता है, वह गुरु है।
मंत्रदाता को भी गुरु कहा गया है,
वस्तुत: मंत्र ही परम गुरु है। गुरु के उपकारों से
जिसका हृदय भर आया ऐसे किसी कृतज्ञ मानव ने कहा
है। आत्मज्ञानी, आत्म-साक्षात्कारी महापुरुष
को जिसने गुरु के रुप में स्वीकार कर लिया हो उसके सौभाग्य का क्या वर्णन किया जाय
? गुरु के बिना तो ज्ञान पाना असंभव ही है। कहते हैं :
ईश कृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं
ज्ञान ।
ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेद
पुरान ॥
गुरु तो है पूर्णिमा जैसा, और शिष्य है आषाढ़ जैसा। शरद पूर्णिमा का चांद
तो सुंदर होता है, क्योंकि आकाश खाली है। वहां शिष्य है ही नहीं,
गुरु अकेला है। आषाढ़ में सुंदर हो, तभी कुछ बात है, जहां गुरु बादलों जैसा घिरा
हो शिष्यों से। शिष्य सब तरह के हैं,
जन्मों-जन्मों के अंधेरे को लेकर आ छाए हैं। वे अंधेरे बादल हैं, आषाढ़ का मौसम हैं। उसमें भी गुरु चांद
की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी रोशनी पैदा कर सके,
तो ही गुरु है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा! वह
गुरु की तरफ भी इशारा है और उसमें
शिष्य की तरफ भी इशारा है। और स्वभावत: दोनों का मिलन जहां
हो,
वहीं कोई सार्थकता है इसीलिए आषाढ़ की पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा के रूप में माना
जाता है ॥
ये तो बात रही गुरु महिमा की अब बात करते है शिष्यों के गुरु के प्रति कर्तव्यों की, कुम्भ मेला से पहले पूज्य गुरु जी ने मुझे एक परम दिव्य तपस्थली के दर्शन करवाए और मुझे आज्ञा की कि यहां कुछ निर्माण कार्य होना चाहिए | ये पूज्य गुरुदेव की बचपन की तपोभूमि रही दिव्य भूमि थी | यहां पर ही उनके संन्यास जीवन का आरम्भ हुआ था और परम विरक्त संत परम पूज्य स्वामी सदानंद परम हंस जी ने यहां वर्षो तपस्या की और इस भूमि को तीर्थ बना दिया|
अभी ही कुछ दिन पहले मै यहाँ पुनः आया और मेरे साथ गुरुदेव श्री के परम भक्त तिवारी परिवार के सिरमौर श्री लक्ष्मी कान्त जी तिवारी और श्री कान्त जी तिवारी भी इस पवित्र भूमि का दर्शन करने आये और गुरु जी के संकल्प को पूरा करने का दृढ निश्चय दिखाया तथा यहां विराजमान पूज्य गुरुदेव श्री के साधना काल के सखा और गुरु भाई स्वामी सत्चिदानन्द परमहंस जी से मिलकर यहां गुरु जी की इच्छानुसार निर्माण कार्य के लिए धन राशी अर्पित की |
पूज्य गुरु देव श्री के बहुत सारे भक्त और शिष्य थे जो गुरु जी को बहुत मानते थे लेकिन उनमे तिवारी परिवार एक ऐसा परिवार जिसको गुरु जी भी बहुत मानते थे तथा इस परिवार के ऊपर हमारे पूर्वजों का भी आशीर्वाद हमेशा रहा है |
ये तो बात रही गुरु महिमा की अब बात करते है शिष्यों के गुरु के प्रति कर्तव्यों की, कुम्भ मेला से पहले पूज्य गुरु जी ने मुझे एक परम दिव्य तपस्थली के दर्शन करवाए और मुझे आज्ञा की कि यहां कुछ निर्माण कार्य होना चाहिए | ये पूज्य गुरुदेव की बचपन की तपोभूमि रही दिव्य भूमि थी | यहां पर ही उनके संन्यास जीवन का आरम्भ हुआ था और परम विरक्त संत परम पूज्य स्वामी सदानंद परम हंस जी ने यहां वर्षो तपस्या की और इस भूमि को तीर्थ बना दिया|
अभी ही कुछ दिन पहले मै यहाँ पुनः आया और मेरे साथ गुरुदेव श्री के परम भक्त तिवारी परिवार के सिरमौर श्री लक्ष्मी कान्त जी तिवारी और श्री कान्त जी तिवारी भी इस पवित्र भूमि का दर्शन करने आये और गुरु जी के संकल्प को पूरा करने का दृढ निश्चय दिखाया तथा यहां विराजमान पूज्य गुरुदेव श्री के साधना काल के सखा और गुरु भाई स्वामी सत्चिदानन्द परमहंस जी से मिलकर यहां गुरु जी की इच्छानुसार निर्माण कार्य के लिए धन राशी अर्पित की |
पूज्य गुरु देव श्री के बहुत सारे भक्त और शिष्य थे जो गुरु जी को बहुत मानते थे लेकिन उनमे तिवारी परिवार एक ऐसा परिवार जिसको गुरु जी भी बहुत मानते थे तथा इस परिवार के ऊपर हमारे पूर्वजों का भी आशीर्वाद हमेशा रहा है |
यह तपोभूमि परमहंस कुटिया के नाम से जानी जाती है और सीतापुर जिले के दरियापुर गाँव में स्थित है, यहाँ से नैमिषारण्य तीर्थ भी ज्यादा दूर नहीं है , यह अत्यंत रम्य भूमि है अनेक वृक्षों से घिरी इस भूमि में साधना के परमाणुओं को आसानी से अनुभूत किया जा सकता है , उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ से मात्र ६० किलोमीटर में स्थित यह भूमि आज भी पूज्य गुरुदेव की साधना की सुगंध से परिपूर्ण है |