ब्रह्मलीन स्वामी विश्वदेवानंद जी महाराज: आध्यात्मिक जगत के प्रकाशस्तंभ
आध्यात्मिकता और मानव कल्याण के क्षेत्र में स्वामी विश्वदेवानंद जी महाराज का नाम एक सूर्य की भांति चमकता है। उन्होंने अपने जीवन को सनातन धर्म की सेवा, वेदांत के प्रचार और विश्व शांति के लिए समर्पित कर दिया। उनके जीवन की यात्रा एक साधारण बालक से लेकर एक महान संत बनने तक की प्रेरक गाथा है, जो आज भी लाखों लोगों को प्रेरित करती है।
प्रारंभिक जीवन और आध्यात्मिक रुचि
स्वामी विश्वदेवानंद जी महाराज का जन्म 12 दिसंबर, 1949 को उत्तर प्रदेश के कानपुर संभाग के नौगांव गांव में एक पवित्र ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम विश्वनाथ शुक्ला था, और उनका बचपन का नाम कैलाश नाथ शुक्ला था। बचपन से ही उनकी रुचि आध्यात्मिकता और धर्म की ओर थी। छोटी उम्र में ही उन्होंने वेद, उपनिषद् और अन्य धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन शुरू कर दिया था। यह अध्ययन उनके जीवन का आधार बना और उन्होंने मानवता की भलाई के लिए संन्यासी जीवन जीने का संकल्प लिया।
16 वर्ष की आयु में, उन्होंने सांसारिक जीवन को त्याग दिया और परमात्मा की खोज में अपने परिवार से संबंध तोड़कर घर छोड़ दिया। इस दौरान उनकी मुलाकात दारिया पुर गांव (नैमिषारण्य, उत्तर प्रदेश के पास) में पूज्य स्वामी सदानंद परमहंस से हुई। स्वामी सदानंद के मार्गदर्शन में उन्होंने सत्संग और विभिन्न साधनाओं में प्रवीणता हासिल की, जिसने उनकी आध्यात्मिक यात्रा को गति दी।
संन्यास और गहन साधना
सन् 1962 में स्वामी विश्वदेवानंद जी ने परम तपस्वी अनंत श्री विभूषित आचार्य महामंडलेश्वर निर्वाण पीठाधीश्वर स्वामी अतुलानंद जी से संन्यास दीक्षा ली और वे परमहंस परिव्राजकाचार्य स्वामी विश्वदेवानंद जी महाराज के नाम से जाने गए। यह दीक्षा उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था, जिसने उन्हें हिंदू धर्म की सर्वोच्च आध्यात्मिक शिक्षा—परमहंस अवस्था—तक पहुंचाया।
संन्यास के बाद, उन्होंने अहमदाबाद के सन्यास आश्रम, एलिस ब्रिज और वाराणसी के गोविंद मठ की महान परंपरा में शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने अंग्रेजी में एम.ए. और दर्शन में आचार्य की उपाधि प्राप्त की, साथ ही वेद, उपनिषद्, योग और प्राचीन शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। इसके बाद, उन्होंने हिमालय, पंजाब, गुजरात के जंगलों, हरिद्वार, वाराणसी और गंगा के तट पर कई वर्षों तक कठोर साधना और तपस्या की। इस दौरान, उन्होंने लोगों की समस्याओं को समझने और अज्ञानता को दूर करने के उपाय खोजने के लिए भारत के विभिन्न पवित्र स्थानों की यात्रा की।
विश्व कल्याण और सामाजिक योगदान
स्वामी विश्वदेवानंद जी का दृष्टिकोण "वसुधैव कुटुंबकम" (विश्व एक परिवार है) की भावना पर आधारित था। इस विचार को साकार करने के लिए उन्होंने हरिद्वार में विश्व कल्याण फाउंडेशन की स्थापना की। सन् 1991 में, उन्होंने हरिद्वार के कनखल में विश्व का पहला पत्थर से बना श्री यंत्र मंदिर स्थापित किया, जो आज भी आध्यात्मिकता का एक महत्वपूर्ण केंद्र है।
सन् 1985 में, हरिद्वार महाकुंभ के दौरान, सनातन धर्म के संतों और श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा ने उन्हें " निर्वाण पीठाधीश्वर " की उपाधि दी। बाद में, उन्हें आचार्य महामंडलेश्वर नियुक्त किया गया, जिसके अंतर्गत वे हरिद्वार, वाराणसी, कोलकाता और अहमदाबाद सहित विभिन्न आश्रमों के अध्यक्ष बने। इस भूमिका में, उन्होंने कई नागा संन्यासियों को दीक्षा दी और कई महामंडलेश्वर नियुक्त किए, जिनमें स्वामी जसराज पुरी (ऑस्ट्रेलिया) और ब्रह्मलीन स्वामी मार्तंड पुरी शामिल हैं।
प्रवचन और वैश्विक प्रभाव
पिछले 30 वर्षों से स्वामी विश्वदेवानंद जी सनातन धर्म के प्रचारक के रूप में प्रवचन देते रहे। उनके प्रवचन वेद, उपनिषद्, भागवत, पुराण, भगवद् गीता, रामायण और अन्य पूर्वी और पश्चिमी दर्शनों को समाहित करते थे। उनकी सरल, वैज्ञानिक और रोचक प्रस्तुति ने हजारों लोगों के जीवन को बदल दिया। वे अपने प्रवचनों में विभिन्न धर्मों के शास्त्रों से उद्धरण देते थे, जिससे ज्ञान की गहराई और व्यापकता का अनुभव होता था।
उन्होंने भारत के साथ-साथ सिंगापुर, मलेशिया, इंग्लैंड, कनाडा और अमेरिका जैसे देशों की यात्रा की, जहां उनके प्रवचनों को जबरदस्त प्रतिक्रिया मिली। विशेष रूप से अमेरिका में उनकी कई यात्राओं ने लोगों को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। उनके प्रवचनों में हास्य, जीवन के अनुभव और शास्त्रीय तर्कों का समावेश होता था, जो श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता था। उनकी विनम्रता और आध्यात्मिक आभा ने हर किसी को प्रभावित किया।
दर्शन और विश्व शांति के लिए योगदान
स्वामी विश्वदेवानंद जी एक महान दार्शनिक और विचारक थे। उनके लिए विज्ञान केवल भौतिक समस्याओं का समाधान था, लेकिन वे इससे आगे बढ़कर एक ऐसी दुनिया की कल्पना करते थे, जहां धर्म, विज्ञान और कला का समन्वय हो। वे विश्व को एक परिवार मानते थे और सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ आध्यात्मिकता को जोड़ते थे।
वे विश्व हिंदू परिषद के सम्मानित सदस्य थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि के रूप में सम्मानित किए गए। उन्होंने लोगों को शांति और मोक्ष के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया, उन्हें सांसारिक मोह से दूर कर सच्चे ज्ञान की ओर ले गए। उनके मार्गदर्शन में लाखों साधकों ने आध्यात्मिक ऊर्जा और ज्ञान प्राप्त किया।
जीवन का अंत और विरासत
स्वामी विश्वदेवानंद जी महाराज ने अपने जीवन के अंतिम दिन हरिद्वार में बिताए, जहां वे सेवा और साधना में लीन रहे। 7 मई, 2013 को उन्होंने देह त्याग दी, लेकिन उनकी शिक्षाएं और योगदान आज भी जीवित हैं। उनके शिष्य, जैसे अनंतबोध चैतन्य, उनके संदेश को आगे बढ़ा रहे हैं।
उनके जीवन का सबसे बड़ा संदेश था कि सच्चा सुख आत्मज्ञान और सेवा में है। उनके दिखाए मार्ग पर चलकर हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं। अधिक आध्यात्मिक प्रेरणा के लिए हमारे ब्लॉग https://anantbodh.blogspot.com/ पर जुड़ें।
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