Tuesday, May 31, 2011
Monday, May 30, 2011
Param Guru Mahima
सर्वशास्त्रार्थनिष्णातं निगमागमबोधकम् ।
श्री कृष्णाख्यं यतिश्रेष्ठं प्रणमामि पुनः पुनः ॥1
कृष्णानन्दं जगद्वन्द्यं कारुण्यामृतसागरम् ।
स्वात्मानन्दनिमग्नञ्च शिवसायुज्यसाधकम् ॥2
जीवितं यस्य लोकायऽऽलोकायैव च जीवनम् ।
महादेव समं मान्यममान्यानपि मानदम् ॥ 3
हार्दं लोकहितार्थाय मनोहारि च यद्वचः ।
राकेन्दुरिव दिव्याय भव्याय नमो नमः ॥ 4
काषायवस्त्रभूषाय मालारुद्राक्षधारिणे ।
श्री कृष्णानन्दसंज्ञाय गुरुणां गुरवे नमः। 5
यतिमण्डलमार्तण्डमानन्दान्बुधिसन्निभम्
नमामि शिरसा देवं कृष्णानन्दं यतिं वरम् ॥6
अज्ञानतिमिरध्वान्तं विप्रकुलसमुद्भवम् ।
नमामि मनसा देवं कृष्णानन्दं यतिं वरम् ॥7
नमः परमहंसाय सुधीभिर्वन्दिताय च ।
श्री कृष्णानन्दसंज्ञाय गुरुणां गुरवे नमः ॥8
अष्टश्लोकी स्तुतिरेषा पुण्यानन्दविवर्धिनी ।
विरचिता ह्यनन्तेन गुरुदेव प्रसादतः ॥
श्री कृष्णाख्यं यतिश्रेष्ठं प्रणमामि पुनः पुनः ॥1
कृष्णानन्दं जगद्वन्द्यं कारुण्यामृतसागरम् ।
स्वात्मानन्दनिमग्नञ्च शिवसायुज्यसाधकम् ॥2
जीवितं यस्य लोकायऽऽलोकायैव च जीवनम् ।
महादेव समं मान्यममान्यानपि मानदम् ॥ 3
हार्दं लोकहितार्थाय मनोहारि च यद्वचः ।
राकेन्दुरिव दिव्याय भव्याय नमो नमः ॥ 4
काषायवस्त्रभूषाय मालारुद्राक्षधारिणे ।
श्री कृष्णानन्दसंज्ञाय गुरुणां गुरवे नमः। 5
यतिमण्डलमार्तण्डमानन्दान्बुधिसन्निभम्
नमामि शिरसा देवं कृष्णानन्दं यतिं वरम् ॥6
अज्ञानतिमिरध्वान्तं विप्रकुलसमुद्भवम् ।
नमामि मनसा देवं कृष्णानन्दं यतिं वरम् ॥7
नमः परमहंसाय सुधीभिर्वन्दिताय च ।
श्री कृष्णानन्दसंज्ञाय गुरुणां गुरवे नमः ॥8
अष्टश्लोकी स्तुतिरेषा पुण्यानन्दविवर्धिनी ।
विरचिता ह्यनन्तेन गुरुदेव प्रसादतः ॥
Param Guru Mahima
सर्वशास्त्रार्थनिष्णातं निगमागमबोधकम् ।
श्री कृष्णाख्यं यतिश्रेष्ठं प्रणमामि पुनः पुनः ॥1
कृष्णानन्दं जगद्वन्द्यं कारुण्यामृतसागरम् ।
स्वात्मानन्दनिमग्नञ्च शिवसायुज्यसाधकम् ॥2
जीवितं यस्य लोकायऽऽलोकायैव च जीवनम् ।
महादेव समं मान्यममान्यानपि मानदम् ॥ 3
हार्दं लोकहितार्थाय मनोहारि च यद्वचः ।
राकेन्दुरिव दिव्याय भव्याय नमो नमः ॥ 4
काषायवस्त्रभूषाय मालारुद्राक्षधारिणे ।
श्री कृष्णानन्दसंज्ञाय गुरुणां गुरवे नमः। 5
यतिमण्डलमार्तण्डमानन्दान्बुधिसन्निभम्
नमामि शिरसा देवं कृष्णानन्दं यतिं वरम् ॥6
अज्ञानतिमिरध्वान्तं विप्रकुलसमुद्भवम् ।
नमामि मनसा देवं कृष्णानन्दं यतिं वरम् ॥7
नमः परमहंसाय सुधीभिर्वन्दिताय च ।
श्री कृष्णानन्दसंज्ञाय गुरुणां गुरवे नमः ॥8
अष्टश्लोकी स्तुतिरेषा पुण्यानन्दविवर्धिनी ।
विरचिता ह्यनन्तेन गुरुदेव प्रसादतः ॥
श्री कृष्णाख्यं यतिश्रेष्ठं प्रणमामि पुनः पुनः ॥1
कृष्णानन्दं जगद्वन्द्यं कारुण्यामृतसागरम् ।
स्वात्मानन्दनिमग्नञ्च शिवसायुज्यसाधकम् ॥2
जीवितं यस्य लोकायऽऽलोकायैव च जीवनम् ।
महादेव समं मान्यममान्यानपि मानदम् ॥ 3
हार्दं लोकहितार्थाय मनोहारि च यद्वचः ।
राकेन्दुरिव दिव्याय भव्याय नमो नमः ॥ 4
काषायवस्त्रभूषाय मालारुद्राक्षधारिणे ।
श्री कृष्णानन्दसंज्ञाय गुरुणां गुरवे नमः। 5
यतिमण्डलमार्तण्डमानन्दान्बुधिसन्निभम्
नमामि शिरसा देवं कृष्णानन्दं यतिं वरम् ॥6
अज्ञानतिमिरध्वान्तं विप्रकुलसमुद्भवम् ।
नमामि मनसा देवं कृष्णानन्दं यतिं वरम् ॥7
नमः परमहंसाय सुधीभिर्वन्दिताय च ।
श्री कृष्णानन्दसंज्ञाय गुरुणां गुरवे नमः ॥8
अष्टश्लोकी स्तुतिरेषा पुण्यानन्दविवर्धिनी ।
विरचिता ह्यनन्तेन गुरुदेव प्रसादतः ॥
गुरुस्तव
सर्वतन्त्रस्वतंत्राय धर्मशास्त्रप्रचारिणे
निर्वाणपीठेश्वराय वेदान्तगुरवे नमः ।। 1
अज्ञानतिमिरध्वान्तं प्रणमामि मुहुर्मुहुः॥ 2
ज्ञाननिष्ठं धर्मनिष्ठं द्वंदातीतं यतेंद्रियम् ।
अज्ञानतिमिरध्वान्तं प्रणमामि मुहुर्मुहुः॥ 3
शरण्यं सर्वभक्तानां ब्रह्मानन्दस्वरूपकम् ।
अज्ञानतिमिरध्वान्तं प्रणमामि मुहुर्मुहुः॥4
श्रेयस्कामं महाभागं मानातीतं यतीश्वरम् ।
अज्ञानतिमिरध्वान्तं प्रणमामि मुहुर्मुहुः॥ 5
जपध्यानेरतं नित्यं भयशोकादिवर्जितम् ।
अज्ञानतिमिरध्वान्तं प्रणमामि मुहुर्मुहुः॥ 6
लोभमोहपरित्यक्तमाशापाशविवर्जितम् ।
अज्ञानतिमिरध्वान्तं प्रणमामि मुहुर्मुहुः॥ 7
विश्वदेवं गुरुवर्यं साक्षाद्शंकररुपिणम् ।
अज्ञानतिमिरध्वान्तं प्रणमामि मुहुर्मुहुः॥ 8
गुरुस्तवमिदं पुण्यं ज्ञानविज्ञानदायकम् ।
मयाविरच्यते ह्येतदनंत ब्रह्मचारिणा ॥
गुरुस्तव
सर्वतन्त्रस्वतंत्राय धर्मशास्त्रप्रचारिणे
निर्वाणपीठेश्वराय वेदान्तगुरवे नमः ।। 1
सुप्रसन्नं कर्मनिष्ठं निजानन्दस्वरुपिणम्
अज्ञानतिमिरध्वान्तं प्रणमामि मुहुर्मुहुः॥ 2
ज्ञाननिष्ठं धर्मनिष्ठं द्वंदातीतं यतेंद्रियम् ।
अज्ञानतिमिरध्वान्तं प्रणमामि मुहुर्मुहुः॥ 3
शरण्यं सर्वभक्तानां ब्रह्मानन्दस्वरूपकम् ।
अज्ञानतिमिरध्वान्तं प्रणमामि मुहुर्मुहुः॥4
श्रेयस्कामं महाभागं मानातीतं यतीश्वरम् ।
अज्ञानतिमिरध्वान्तं प्रणमामि मुहुर्मुहुः॥ 5
जपध्यानेरतं नित्यं भयशोकादिवर्जितम् ।
अज्ञानतिमिरध्वान्तं प्रणमामि मुहुर्मुहुः॥ 6
लोभमोहपरित्यक्तमाशापाशविवर्जितम् ।
अज्ञानतिमिरध्वान्तं प्रणमामि मुहुर्मुहुः॥ 7
विश्वदेवं गुरुवर्यं साक्षाद्शंकररुपिणम् ।
अज्ञानतिमिरध्वान्तं प्रणमामि मुहुर्मुहुः॥ 8
गुरुस्तवमिदं पुण्यं ज्ञानविज्ञानदायकम् ।
मयाविरच्यते ह्येतदनंत ब्रह्मचारिणा ॥
Friday, May 27, 2011
श्री कृष्णानन्दस्तुतिः
श्री यन्त्र मन्दिरम्
विश्वस्मिन् ननु भुतले शुभकरो देव्यालयोऽन्यत्र कः
चित्तागारविचारराशिरचना संपुरको यो चिरम् ।
अत्रैवाद्वयतत्त्वसिद्धभवने निर्वाणपीठाश्रमे
सर्वाशापरिपूरकःशिवकरो दिव्यालयो विद्यते ॥१
यत्वात्सल्य रसेन नित्य वसुधा सिक्ता दरीदृश्यते
यस्याह्लाद कर्णेन चन्द्रतरणी दिव्यौ च भव्यौ स्मृतौ ।
विश्वं यत्कृपया सदा गुणगणैः सत्यं समुज्जृम्भते
तस्याः भीतिनिवारणैक कुशलो दिव्यालयो दृश्यते ॥२
या ब्रह्मादिसुरेश्वरैः जनिमतां वंद्यैः सदा वन्दिता
भक्तानां भवभीति भंजनपरा भक्तिप्रदा भैरवी।
दावाग्निर्भववासनाधिविपिने ज्ञानात्मिका या चित्तिः
सा श्री मन्दिरचत्वरे विलषते श्री राजराजेश्वरी ॥३
न भैकाभ्रद्वन्द्वे सुभगतरवर्षे ग्रहपतौ
हरिद्वारे तीर्थे सुरतटिनि तीरे कनखले ।
महाकुम्भे दिव्ये सुरवर विलासैक भवनम्
महादेव्याः भव्यं भुवनकमनं दिव्यमसृजत् ।।४
निर्वाणपीठेश्वरः आचार्यविश्वदेवानन्दयतिः
श्री श्री यन्त्र मन्दिरे हरिद्वारे श्रियं स्थापयति ॥
नत्वा गुरुं गणपतिं पितरौ जगदम्बिकासदाशिवौ च
सर्वान् साधून् प्रणम्य श्री मन्दिरं सुसंथापयति ॥
ब्रह्मचारी अनन्तबोध चैतन्य
श्री कृष्णानन्दस्तुतिः
श्री यन्त्र मन्दिरम्
विश्वस्मिन् ननु भुतले शुभकरो देव्यालयोऽन्यत्र कः
चित्तागारविचारराशिरचना संपुरको यो चिरम् ।
अत्रैवाद्वयतत्त्वसिद्धभवने निर्वाणपीठाश्रमे
सर्वाशापरिपूरकःशिवकरो दिव्यालयो विद्यते ॥१
यत्वात्सल्य रसेन नित्य वसुधा सिक्ता दरीदृश्यते
यस्याह्लाद कर्णेन चन्द्रतरणी दिव्यौ च भव्यौ स्मृतौ ।
विश्वं यत्कृपया सदा गुणगणैः सत्यं समुज्जृम्भते
तस्याः भीतिनिवारणैक कुशलो दिव्यालयो दृश्यते ॥२
या ब्रह्मादिसुरेश्वरैः जनिमतां वंद्यैः सदा वन्दिता
भक्तानां भवभीति भंजनपरा भक्तिप्रदा भैरवी।
दावाग्निर्भववासनाधिविपिने ज्ञानात्मिका या चित्तिः
सा श्री मन्दिरचत्वरे विलषते श्री राजराजेश्वरी ॥३
न भैकाभ्रद्वन्द्वे सुभगतरवर्षे ग्रहपतौ
हरिद्वारे तीर्थे सुरतटिनि तीरे कनखले ।
महाकुम्भे दिव्ये सुरवर विलासैक भवनम्
महादेव्याः भव्यं भुवनकमनं दिव्यमसृजत् ।।४
निर्वाणपीठेश्वरः आचार्यविश्वदेवानन्दयतिः
श्री श्री यन्त्र मन्दिरे हरिद्वारे श्रियं स्थापयति ॥
नत्वा गुरुं गणपतिं पितरौ जगदम्बिकासदाशिवौ च
सर्वान् साधून् प्रणम्य श्री मन्दिरं सुसंथापयति ॥
ब्रह्मचारी अनन्तबोध चैतन्य
Guru Parichya
परम पूज्य आचार्य महामण्डलेश्वर निर्वाणपीठाधीश्वर श्री श्री १००८ स्वामी विश्वदेवानन्द जी के साथ वार्तालाप के कुछ अंश ---
महाराज श्री से जन्म समय तथा जन्म स्थान के बारे मे पूछने पर महाराज श्री का बडा सारगर्भित उत्तर-
पूज्य महाराज जी फ़रमाते हैं कि साधु का परिचय जन्म के साथ नहीं होता ,साधु अपनी मृत्यु से परिचय देता हैं। उसका कर्त्तृत्व ही समाज के लिये प्रेरक होता हैं। वह अपनी समसायमिक व्यवस्था के साथ आने वाली भविष्य की पीढियों के प्रति भी कर्तव्यबोध तथा प्रयोग के द्वारा जीवन के महत् उद्देश्यों व मूल्यों की विरासत प्रस्तुत करता हैं। साधु अपनी मृत्यु के साथ भी कुछ दे जाता है।यही कारण है कि महात्मा की मृत्युतिथि महोत्सव के रुप मे देखी जाती है, जिससे प्रेरणा लेकर जीवन को उत्सव की भांति जी सके। पुनः इसी प्रश्न के सन्दर्भ में महाराज श्री ने कहा कि जगन्मिथ्यात्त्व के दर्शन में समाहित हुई आत्मचेतना स्वयं के परम लक्ष्य ब्रह्मभाव में स्थिति के साथ देह और देह सम्बन्धी व्यवस्थाओं को लौकिक व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में गौण मानती हुई उस पर ज्यादा चर्चा करने और सुनने में उत्सुक नहीं होती।
यथार्थ जगत् की अपनी एक सत्ता है किन्तु वह बाधित है।जीवन की अनिवार्यता तो उसमें है लेकिन सहज व अन्तिम स्थिति नहीं है। अतःएव उसे गौण रुप में देखते हुए परम लक्ष्य मे प्रतिष्ठित होना ही दृष्टि का प्रधान विषय होता है। यही कारण है कि दैहिक व्यस्थाओं मे ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष की सन्निष्ठा महत्त्व का दर्शन नहीं करती।यही दृष्टि का आधारभूत दर्शन है, जो महापुरुष को सामान्य लौकिक व्यक्ति से अलग करता है । लोक में रह कर भी वह अलौकिक रहता हैं। साधुता के इसी मर्म के साथ साधु सही अर्थों मे साधु होता है एवं साधुता की साधना सिद्ध अन्तिम मञ्जिल तक पहुंचता है। दैहिक तल पर कर्त्तृत्व और इस तल से जुड़े हुए वह जन्मादि को ज्यादा प्रशांसित नहीं करता, इस अर्थ मे जयंती आदि के कार्यक्रम भी उसे आकर्षित नहीं कर पाते, दैहिक परिचयों के भूमि से वह अलग होता है बाध्यता है कि वह जगत मे होता है, क्योकि यह ईश्वरीय व्यवस्था है । सुख-दुख की विभिन्न परिस्थितियों में समता बोध के साथ जीता हुआ सब कुछ सहज से अपनाता हुआ, सत्य ब्रह्म की उर्ध्व भूमि में समासीन रहता है। इस अर्थ में दैहिक परिचय उपेक्षणीय मानता है। भक्त, अपनी आस्था से कुछ भी करें श्रध्दा की भाषा और भावना में किसी भी स्तर से मान की भूमिका बनायें लेकिन महापुरूष अमान और उन्मन ही रहते हैं।
सन्देश - आत्मस्थिति अर्थात् ब्रह्मात्मैक्यस्थिति का बोध यही जीवन का परम लक्ष्य है। जिस लक्ष्य का सन्देश वेदवेदान्त विभिन्न-घोषणाओं के द्वारा देते चले आ रहे है प्राप्त गुरुज्ञान से उसकी अनुभुति तथा स्मृति बनाये रखते हुये अपनी प्राप्त क्षमता तथा योग्यता के साथ ईश्वरीय चेतना के प्रकाश में व्यक्ति सत्कर्मों का अनुष्ठान करता हुआ सहज दोषों से अपने को अलग रखने का दृढ संकल्प रखें। सत्य एवं सदाचार का अनुसरण करें ।
संकलनकर्ता --- ब्रह्मचारी अनन्तबोध चैतन्य
Guru Parichya
परम पूज्य आचार्य महामण्डलेश्वर निर्वाणपीठाधीश्वर श्री श्री १००८ स्वामी विश्वदेवानन्द जी के साथ वार्तालाप के कुछ अंश ---
महाराज श्री से जन्म समय तथा जन्म स्थान के बारे मे पूछने पर महाराज श्री का बडा सारगर्भित उत्तर-
पूज्य महाराज जी फ़रमाते हैं कि साधु का परिचय जन्म के साथ नहीं होता ,साधु अपनी मृत्यु से परिचय देता हैं। उसका कर्त्तृत्व ही समाज के लिये प्रेरक होता हैं। वह अपनी समसायमिक व्यवस्था के साथ आने वाली भविष्य की पीढियों के प्रति भी कर्तव्यबोध तथा प्रयोग के द्वारा जीवन के महत् उद्देश्यों व मूल्यों की विरासत प्रस्तुत करता हैं। साधु अपनी मृत्यु के साथ भी कुछ दे जाता है।यही कारण है कि महात्मा की मृत्युतिथि महोत्सव के रुप मे देखी जाती है, जिससे प्रेरणा लेकर जीवन को उत्सव की भांति जी सके। पुनः इसी प्रश्न के सन्दर्भ में महाराज श्री ने कहा कि जगन्मिथ्यात्त्व के दर्शन में समाहित हुई आत्मचेतना स्वयं के परम लक्ष्य ब्रह्मभाव में स्थिति के साथ देह और देह सम्बन्धी व्यवस्थाओं को लौकिक व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में गौण मानती हुई उस पर ज्यादा चर्चा करने और सुनने में उत्सुक नहीं होती।
यथार्थ जगत् की अपनी एक सत्ता है किन्तु वह बाधित है।जीवन की अनिवार्यता तो उसमें है लेकिन सहज व अन्तिम स्थिति नहीं है। अतःएव उसे गौण रुप में देखते हुए परम लक्ष्य मे प्रतिष्ठित होना ही दृष्टि का प्रधान विषय होता है। यही कारण है कि दैहिक व्यस्थाओं मे ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष की सन्निष्ठा महत्त्व का दर्शन नहीं करती।यही दृष्टि का आधारभूत दर्शन है, जो महापुरुष को सामान्य लौकिक व्यक्ति से अलग करता है । लोक में रह कर भी वह अलौकिक रहता हैं। साधुता के इसी मर्म के साथ साधु सही अर्थों मे साधु होता है एवं साधुता की साधना सिद्ध अन्तिम मञ्जिल तक पहुंचता है। दैहिक तल पर कर्त्तृत्व और इस तल से जुड़े हुए वह जन्मादि को ज्यादा प्रशांसित नहीं करता, इस अर्थ मे जयंती आदि के कार्यक्रम भी उसे आकर्षित नहीं कर पाते, दैहिक परिचयों के भूमि से वह अलग होता है बाध्यता है कि वह जगत मे होता है, क्योकि यह ईश्वरीय व्यवस्था है । सुख-दुख की विभिन्न परिस्थितियों में समता बोध के साथ जीता हुआ सब कुछ सहज से अपनाता हुआ, सत्य ब्रह्म की उर्ध्व भूमि में समासीन रहता है। इस अर्थ में दैहिक परिचय उपेक्षणीय मानता है। भक्त, अपनी आस्था से कुछ भी करें श्रध्दा की भाषा और भावना में किसी भी स्तर से मान की भूमिका बनायें लेकिन महापुरूष अमान और उन्मन ही रहते हैं।
सन्देश - आत्मस्थिति अर्थात् ब्रह्मात्मैक्यस्थिति का बोध यही जीवन का परम लक्ष्य है। जिस लक्ष्य का सन्देश वेदवेदान्त विभिन्न-घोषणाओं के द्वारा देते चले आ रहे है प्राप्त गुरुज्ञान से उसकी अनुभुति तथा स्मृति बनाये रखते हुये अपनी प्राप्त क्षमता तथा योग्यता के साथ ईश्वरीय चेतना के प्रकाश में व्यक्ति सत्कर्मों का अनुष्ठान करता हुआ सहज दोषों से अपने को अलग रखने का दृढ संकल्प रखें। सत्य एवं सदाचार का अनुसरण करें ।
संकलनकर्ता --- ब्रह्मचारी अनन्तबोध चैतन्य
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