Tuesday, September 26, 2023

Swami Vishwadevanand Puri Ji Maharaj?



Swami Vishwadevanand Puri Ji Maharaj was born on January 26, 1946, in Kanpur, Uttar Pradesh, India, in the household of Shri Vishwanath Shukla, a devout Brahmin of the Sanatan Dharma tradition. In his childhood, he was named "Kailashnath Shukla."

Renunciation: Swami Vishwadevanand Puri Ji renounced his worldly life at the age of 16 in pursuit of truth. He left his home and never returned, completely severing ties with his family. In the same year, he traveled to Dariya Pur village near Naimisharanya and met Swami Sadanand Paramhansa Ji Maharaj. There, he learned various forms of spiritual practices and excelled in them.

Education: Swami Ji studied grammar, philosophy, Bhagavad Gita, Nyaya Shastra, Vedanta, and other subjects at the Sannyasa Ashram in Ahmedabad under the guidance of Nirvana Peethadhishwar Acharya Swami Shri Krishnanand Ji Maharaj. Later, he pursued postgraduate studies in English at Delhi University.

Ascetic Life: At the age of 20, Swami Vishwadevanand embarked on a journey to the Himalayas, dedicating himself to relentless meditation, self-realization, and service to dharma. During this time, he endured extreme weather conditions with minimal clothing, and his daily routine included bathing three times, meditation, bhajans (devotional songs), and worship.

Initiation into Sannyasa: In 1962, Swami Vishwadevanand Puri Ji took formal sannyasa initiation from Param Tapasvi Nirvana Peethadhishwar Acharya Swami Shri Atulanand Ji Maharaj and became known as "Paramhansa Paribrajakacharya 1008 Shri Swami Vishwadevanand Ji Maharaj."

Travel and Teachings: Swami Ji undertook extensive journeys across India and abroad, spreading the message of dharma, spirituality, and universal welfare. He believed that all beings are divine manifestations of the Supreme Being and advocated for harmony, unity, and the well-being of all humanity. He gave lectures and discourses in various cities and emphasized the concept of "Vasudhaiva Kutumbakam" (the world is one family).

Elevation to Nirvana Peethadhishwar: In 1985, after the passing of Acharya Swami Shri Atulanand Ji Maharaj, Swami Vishwadevanand Puri Ji became the Nirvana Peethadhishwar (spiritual head) of the Nirvana Akhada. He continued to serve and guide his disciples and followers.

Construction of Shri Yantra Mandir: In 2010, he undertook the construction of the Shri Yantra Mandir in Haridwar, dedicated to Goddess Tripura Sundari. This temple, made from red stone, stands as a testament to his dedication to global well-being and spirituality.

Disciples and Devotees: Swami Vishwadevanand Puri Ji had thousands of disciples and devotees across India and the world, including prominent figures like Shri Lakshmi Kant Tiwari Ji from Kolkata. Shri Anantbodh Chaitanya ji is living in Europe and promoting Sanatan Dharma all over the Globe. His teachings and guidance left a lasting impact on their lives.

Nirvana: On May 7, 2013, while en route to Haridwar, Swami Vishwadevanand Puri Ji Maharaj met with a tragic accident, and his physical body merged into the divine under a Rudraksha tree in the precincts of Shri Yantra Mandir.

His life and teachings continue to inspire and guide countless individuals on their spiritual journeys.

Monday, January 9, 2023

॥ ऋणमोचन अङ्गारकस्तोत्रम् ॥

 

॥ ऋणमोचन अङ्गारकस्तोत्रम् ॥ 


अथ ऋणग्रस्तस्य ऋणविमोचनार्थ अङ्गारकस्तोत्रम् |

स्कन्द उवाच । ऋणग्रस्तनराणां तु ऋणमुक्तिः कथं भवेत् ।


ब्रह्मोवाच । 

वक्ष्येऽहं सर्वलोकानां हितार्थं हितकामदम् ।


अस्य श्री अङ्गारकमहामन्त्रस्य गौतम ऋषिः। अनुष्टुप्छन्दः।

अङ्गारको देवता। मम ऋणविमोचनार्थे अङ्गारकमन्त्रजपे विनियोगः। 


ध्यानम्  

रक्तमाल्याम्बरधरः शूलशक्तिगदाधरः । 

चतुर्भुजो मेषगतो वरदश्च धरासुतः ॥ १ ॥


मङ्गलो भूमिपुत्रश्च ऋणहर्ता धनप्रदः ।

स्थिरासनो महाकायो सर्वकाम फलप्रदः ॥ २ ॥


लोहितो लोहिताक्षश्च सामगानां कृपाकरः । 

धरात्मजः कुजो भौमो भूमिदो भूमिनन्दनः ॥ ३॥


अङ्गारको यमश्चीव सर्वरोगापहारकः ।

सृष्टेः कर्ता च हर्ता च सर्वदेशैश्च पूजितः || ४||


एतानि कुजनामानि नित्यं यः प्रयतः पठेत् ।

ऋणं न जायते तस्य श्रियं प्राप्नोत्यसंशयः ॥ ५ ॥


अङ्गारक महीपुत्र भगवन् भक्तवत्सल । 

नमोऽस्तु ते ममाशेषं ऋणमाशु विनाशय ।। ६ ।।


रक्तगन्धैश्च पुष्पैश्च धूपदीपैर्गुडोदनैः ।

मङ्गलं पूजयित्वा तु मङ्गलाहनि सर्वदा ॥ ७॥


एकविंशति नामानि पठित्वा तु तदन्तिके ।

ऋणरेखा प्रकर्तव्या अङ्गारेण तदग्रतः || ८||


ताश्च प्रमार्जयेन्नित्यं वामपादेन संस्मरन् ।

एवं कृते न सन्देहः ऋणान्मुक्तः सुखी भवेत् ॥ ९॥


महतीं श्रियमाप्नोति धनदेन समो भवेत् ।

भूमिं च लभते विद्वान् पुत्रानायुश्च विन्दति ॥ १० ॥


मूलमन्त्रः ।


अङ्गारक महीपुत्र भगवन् भक्तवत्सल । 

नमस्तेऽस्तु महाभाग ऋणमाशु विनाशय ।। ११ ।।


अर्घ्यम् ।


भूमिपुत्र महातेज: स्वेदोद्भव पिनाकिनः । 

ऋणार्थस्त्वां प्रपन्नोऽस्मि गृहाणार्थ्यं नमोऽस्तु ते ॥ १२ ॥


 । इति ऋणमोचन अङ्गारकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।

Monday, December 5, 2022

हनुमान चालीसा में छिपे मैनेजमेंट के सूत्र...

 हनुमान चालीसा में छिपे मैनेजमेंट के सूत्र...

कई लोगों की दिनचर्या हनुमान चालीसा पढ़ने से शुरू होती है। पर क्या आप जानते हैं कि श्री हनुमान चालीसा में 40 चौपाइयां हैं, ये उस क्रम में लिखी गई हैं जो एक आम आदमी की जिंदगी का क्रम होता है। माना जाता है तुलसीदास ने चालीसा की रचना मानस से पूर्व किया था। हनुमान को गुरु बनाकर उन्होंने राम को पाने की शुरुआत की। अगर आप सिर्फ हनुमान चालीसा पढ़ रहे हैं तो यह आपको भीतरी शक्ति तो दे रही है लेकिन अगर आप इसके अर्थ में छिपे जिंदगी के सूत्र समझ लें तो आपको जीवन के हर क्षेत्र में सफलता दिला सकते हैं। हनुमान चालीसा सनातन परंपरा में लिखी गई पहली चालीसा है शेष सभी चालीसाएं इसके बाद ही लिखी गई। हनुमान चालीसा की शुरुआत से अंत तक सफलता के कई सूत्र हैं। आइए जानते हैं हनुमान चालीसा से आप अपने जीवन में क्या-क्या बदलाव ला सकते हैं….

शुरुआत गुरु से…

हनुमान चालीसा की शुरुआत गुरु से हुई है…

श्रीगुरु चरन सरोज रज,
निज मनु मुकुरु सुधारि।

अर्थ - अपने गुरु के चरणों की धूल से अपने मन के दर्पण को साफ करता हूं।

गुरु का महत्व चालीसा की पहले दोहे की पहली लाइन में लिखा गया है। जीवन में गुरु नहीं है तो आपको कोई आगे नहीं बढ़ा सकता। गुरु ही आपको सही रास्ता दिखा सकते हैं। इसलिए तुलसीदास ने लिखा है कि गुरु के चरणों की धूल से मन के दर्पण को साफ करता हूं। आज के दौर में गुरु हमारा मेंटोर भी हो सकता है, बॉस भी। माता-पिता को पहला गुरु ही कहा गया है। समझने वाली बात ये है कि गुरु यानी अपने से बड़ों का सम्मान करना जरूरी है। अगर तरक्की की राह पर आगे बढ़ना है तो विनम्रता के साथ बड़ों का सम्मान करें।

ड्रेसअप का रखें ख्याल…

चालीसा की चौपाई है
कंचन बरन बिराज सुबेसा,
कानन कुंडल कुंचित केसा।

अर्थ - आपके शरीर का रंग सोने की तरह चमकीला है, सुवेष यानी अच्छे वस्त्र पहने हैं, कानों में कुंडल हैं और बाल संवरे हुए हैं। आज के दौर में आपकी तरक्की इस बात पर भी निर्भर करती है कि आप रहते और दिखते कैसे हैं। फर्स्ट इंप्रेशन अच्छा होना चाहिए। अगर आप बहुत गुणवान भी हैं लेकिन अच्छे से नहीं रहते हैं तो ये बात आपके करियर को प्रभावित कर सकती है। इसलिए, रहन-सहन और ड्रेसअप हमेशा अच्छा रखें।आगे पढ़ें - 

हनुमान चालीसा में छिपे मैनेजमेंट के सूत्र...

सिर्फ डिग्री काम नहीं आती

बिद्यावान गुनी अति चातुर,
राम काज करिबे को आतुर।

अर्थ - आप विद्यावान हैं, गुणों की खान हैं, चतुर भी हैं। राम के काम करने के लिए सदैव आतुर रहते हैं।

आज के दौर में एक अच्छी डिग्री होना बहुत जरूरी है। लेकिन चालीसा कहती है सिर्फ डिग्री होने से आप सफल नहीं होंगे। विद्या हासिल करने के साथ आपको अपने गुणों को भी बढ़ाना पड़ेगा, बुद्धि में चतुराई भी लानी होगी। हनुमान में तीनों गुण हैं, वे सूर्य के शिष्य हैं, गुणी भी हैं और चतुर भी।

अच्छा लिसनर बनें

प्रभु चरित सुनिबे को रसिया,
राम लखन सीता मन बसिया।

अर्थ -आप राम चरित यानी राम की कथा सुनने में रसिक है, राम, लक्ष्मण और सीता तीनों ही आपके मन में वास करते हैं। जो आपकी प्रायोरिटी है, जो आपका काम है, उसे लेकर सिर्फ बोलने में नहीं, सुनने में भी आपको रस आना चाहिए। अच्छा श्रोता होना बहुत जरूरी है। अगर आपके पास सुनने की कला नहीं है तो आप कभी अच्छे लीडर नहीं बन सकते। 

कहां, कैसे व्यवहार करना है ये ज्ञान जरूरी है

सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा, बिकट रुप धरि लंक जरावा।

अर्थ - आपने अशोक वाटिका में सीता को अपने छोटे रुप में दर्शन दिए। और लंका जलाते समय आपने बड़ा स्वरुप धारण किया। कब, कहां, किस परिस्थिति में खुद का व्यवहार कैसा रखना है, ये कला हनुमानजी से सीखी जा सकती है। सीता से जब अशोक वाटिका में मिले तो उनके सामने छोटे वानर के आकार में मिले, वहीं जब लंका जलाई तो पर्वताकार रुप धर लिया।

अक्सर लोग ये ही तय नहीं कर पाते हैं कि उन्हें कब किसके सामने कैसा दिखना है।

अच्छे सलाहकार बनें

तुम्हरो मंत्र विभीषण माना, लंकेश्वर भए सब जग जाना।

अर्थ - विभीषण ने आपकी सलाह मानी, वे लंका के राजा बने ये सारी दुनिया जानती है।

हनुमान सीता की खोज में लंका गए तो वहां विभीषण से मिले। विभीषण को राम भक्त के रुप में देख कर उन्हें राम से मिलने की सलाह दे दी। विभीषण ने भी उस सलाह को माना और रावण के मरने के बाद वे राम द्वारा लंका के राजा बनाए गए। किसको, कहां, क्या सलाह देनी चाहिए, इसकी समझ बहुत आवश्यक है। सही समय पर सही इंसान को दी गई सलाह सिर्फ उसका ही फायदा नहीं करती, आपको भी कहीं ना कहीं फायदा पहुंचाती है।

आत्मविश्वास की कमी ना हो

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही, जलधि लांघि गए अचरज नाहीं।

अर्थ - राम नाम की अंगुठी अपने मुख में रखकर आपने समुद्र को लांघ लिया, इसमें कोई अचरज नहीं है।

अगर आपमें खुद पर और अपने परमात्मा पर पूरा भरोसा है तो आप कोई भी मुश्किल से मुश्किल टॉस्क को आसानी से पूरा कर सकते हैं। आज के युवाओं में एक कमी ये भी है कि उनका भरोसा बहुत टूट जाता है। आत्मविश्वास की कमी भी बहुत है। प्रतिस्पर्धा के दौर में आत्मविश्वास की कमी होना खतरनाक है। अपनेआप पर पूरा भरोसा रखे।

Friday, January 29, 2021

Shri Vishwadevanand Puri Ji




The Visionary With an illustrious Background of Pujya Maharaj Shri Nirvana Pithadhishwar Acharya Mahamandleshwar Shri Shri 108 Swami Shri Vishwadevanand Puri Ji.
Born in virtuous and sacred Brahman family on 12-12-1949, he showed signs of fervour towards spirituality during his childhood. He read many Vedic scriptures in his childhood which progressively developed in him a resolve to lead a Sanyasi’s (A life of renunciation) life for the welfare of mankind. Pujya Nirvana Pithadhishwar Acharya Mahamandleshwar Maharaj Shri Swami Vishvadewanand Puriji was initiated into an order of Sanyasis of Adi Shankaracharya, by one of the greatest saints revered Pujya Nirvana Pithadhishwar Acharya Mahamandleshwar Swami Shri Atulananda Puriji (Vedant keshari). He studied M.A.in English,Acharya in Darshan , Vedas, Upanishads, Yoga and other ancient scriptures under the guidance of great saints ofIndia. Following Vedic tradition of Great Sanyas Ashram Elise Bridg Ahemdabad and the land of scholars the great tradition of Govind Math, Varanasi, he spent many years of life in intense penance and Sadhana (spiritual practices for self realization) at many places in Himalayas including, Punjab, Gujarat forests Haridwar and Varanasi and on the banks of river Ganges
                 In order to understand the plight of people and possible solutions for dispelling ignorance, he went on a pilgrimage to all the holy places in different parts of India. Later, he went for world tour to share his knowledge to people throughout the world. Guided by divine within, supported by Vedic knowledge and rich experiences of spirituality, he developed a very broad vision to serve the society based on the greatest dictum “Vasudev Kutumbkam” meaning “the whole world is one family of divine”. That's why he is The Founder of Visva Kalyan Foundation in Haridwar.
                  The saints of the Sanatan Dharma (Hindu Society) and a leading organization of millions of sadhus, the SHRI PANCHAYATI MAHANIRVANI AKHADA had designated him as PRIME SAINT in 1985 at the Haridwar Maha Kumbh. He has then been appointed as ACHARYA MAHAMANDLESHWAR i.e. the leader of all the saints of SHRI PANCHAYATI MAHANIRVANI AKHADA. As the Acharya Mahamandleshwar of the Akhada, Maharaj Shri is Chairman of various Ashrams situated at Haridwar, Varanasi, Kolkata and Ahmedabad etc.Maharaj Shri established The First Shri Yantra Mandir of world made by stone. This temple is situated in Kankhal, Haridwar , Uttrakhanda(Himalyas) India.                                                 
 Pujya Maharaj Shri has now been delivering religious discourses for the last thirty years, as a preacher of the Sanatan Dharma. In India, Pujya Maharaj Shri attracts huge audiences. His simple, scientific and interesting presentation of the philosophy is so powerful that it has changed the lives of thousands of people. He often tours outside India as well. He has inspired thousands of people in Singapore, Malaysia and England, Canada , America where his visit is always anxiously awaited. Pujya Maharaj Shri visited USA several times and evoked a tremendous response in every city that he visited.
His lectures cover the teachings of the Vedas, Upanishads, Bhagavatam, Puranas, Bhagavad Geeta, Ramayana, and other Eastern and Western philosophies. Like the true disciple of a true master, Pujya Maharaj Shri masterfully quotes from scriptures of different religions that have the ability to satisfy even the most discerning of knowledge seekers. He also reveals the simple and straightforward way of God-realization which can be practiced by anyone. Another special feature about his lectures is that he establishes every spiritual truth through scriptural quotations, irrefutable logic and humorous real-life illustrations. His wisdom filled anecdotes, humorous stories and clarity has the audience both enthralled and entertained for the entire duration of his lecture! Pujya Maharaj Shri's warmth and humility touch all those who have the fortune to have his association. In fact, his very presence radiates Grace and 
Bliss.
                    Pujya Maharaj Shri is a Great Philosopher – a great thinker. Science is not the end for him. Science can only create a better world bereft of poverty, illness and unfair disparities. He thinks beyond science. He creates a world of universal oneness - integrated with religion, science and art. He is the confluence’ in which many streams converge and reflect an individual’s quest for meaning.
Pujya Maharaj Shri is a honorable member of the Vishva Hindu Prishad. Maharaj Shri was honored by Chief guest of Rashtriya Savayam Sevak Sangh (R.S.S.) many times.
                    Pujya Maharaj Shri's aims at creating men of wisdom, science, art and religion. He believes - a realized wise human being only can form a beautiful heavenly world. He leads his disciples to the path of peace and salvation, weaning them away from worldly delusions. He links spirituality with social responsibility and world peace. Pujya Maharaj Shri has made people more responsible towards others to make the world a place where all can live together peacefully and where strife, tension, evil, inequality, intolerance do not exist. For him, universe is a complete family.
                          Pujya Maharaj Shri seems unaffected by this incredible list of accomplishments and remains a pious child of God, owning nothing, draped in saffron robes, living a life of true renunciation. His days in Haridwar are spent offering service to those around him. Thousands travel from America, Europe and England as well as from all over India, simply to sit in his presence, to receive his"darshan."To them, the journey is an inconsequential price to pay for the priceless gift of his satsang. 
                      Millions of seekers / devotees are doing spiritual practice under the divine guidance of Pujya Maharaj Shri the world over. They are finding themselves more energetic and spiritually they are feeling enlightened.

आचार्य महामंडलेश्वर निर्वाण पीठाधीश्वर ब्रह्मलीन स्वामी कृष्णानन्द गिरि जी महाराज

श्रीकृष्णानंद जी महाराज 


 सर्वशास्त्रार्थनिष्णातं निगमागमबोधकम् । 
 श्रीकृष्णाख्यं यतिश्रेष्ठं प्रणमामि पुनः पुनः ॥1
 सभी शास्त्रों का अर्थ करने में निष्णात, निगम और आगम का बोध प्रदान करने वाले , यतिश्रेष्ठ, श्रीकृष्णानंद जी महाराज को मैं बार-बार प्रणाम करता हूं। 
 कृष्णानन्दं जगद्वन्द्यं कारुण्यामृतसागरम् । स्वात्मानन्दनिमग्नञ्च शिवसायुज्यसाधकम् ॥2 
 कृष्ण-आनंदी, संपूर्ण जगत् के द्वारा वंदित, करुणा रूपी अमृत के सागर , अपनी आत्मा के आनंद में डूबे हुए, शिव सायुज्य की साधना करने वाले , गुरुदेव को प्रणाम। 
 जीवितं यस्य लोकायाऽलोकायैव च जीवनम् । महादेवसमं मान्यममान्येभ्योऽपि मानदम् ॥ 3
 जिनका जीवन,संसार का कल्याण करने में लगा हुआ भी , अलौकिक गतिविधियों से पूर्ण है, ऐसे महादेव के समान सम्माननीय, अमान्य (जो गरीबी आदि के कारण समाज में अमान्य हैं) लोगों को भी सम्मान देने वाले गुरुदेव को प्रणाम। 
 हार्दं लोकहितार्थाय मनोहारि च यद्वचः । राकेन्दुरिव दिव्याय भव्यायापि नमो नमः ॥ 4 
 जिनकी वाणी , हार्दिक होती हुई भी संसार के लिए कल्याणकारी एवं मनोहर होती है, ऐसे रात्रि कालीन चंद्रमा की तरह दिव्य और भव्य गुरुदेव को बारंबार प्रणाम। 
 काषायवस्त्रभूषाय मालारुद्राक्षधारिणे । श्रीकृष्णानन्दसंज्ञाय गुरूणां गुरवे नमः। 5
 कषाय वस्त्र से विभूषित, माला और रुद्राक्ष धारण करने वाले, जो गुरुओं के भी गुरु हैं , ऐसे श्री कृष्णानंद स्वामी जी के लिए नमस्कार। 
 यतिमण्डलमार्तण्डमानन्दाम्बुधिसन्निभम् नमामि शिरसा देवं कृष्णानन्दं यतिं वरम् ॥6 
 सन्यासियों के मंडल में मार्तंड (सूर्य) की तरह देदीप्यमान,आनन्द के समुद्र के जैसी आभा वाले,श्रेष्ठ यति, कृष्णानंद स्वामी जी को मैं सिर झुका कर नमस्कार करता हूं। 
 अज्ञानतिमिरध्वंसं विप्रकुलसमुद्भवम् । नमामि मनसा देवं कृष्णानन्दं यतिं वरम् ॥7 
 अज्ञान रूपी अंधकार नष्ट करने वाले , ब्राह्मण के कुल में उत्पन्न, वरणीय, देवस्वरूप, कृष्णानंद यति जी महाराज को मैं अपने मन से प्रणाम करता हूं। 
 नमः परमहंसाय सुधीभिर्वन्दिताय च । श्रीकृष्णानन्दसंज्ञाय गुरूणां गुरवे नमः ॥8 
 विद्वानों द्वारा वन्दित, परमहंस, गुरुओं के गुरु , श्रीकृष्णानंद जी महाराज को नमस्कार है। अष्टश्लोकी स्तुतिश्चैषा पुण्यानन्दविवर्धिनी । रचिता वै ह्यनन्तेन गुरुदेवप्रसादतः।। यह आठ श्लोकों की स्तुति , पुण्य और आनंद को बढ़ाने वाली है, यह अनंतबोध चैतन्य ने अपने गुरुदेव के प्रसाद से ही लिखी है।

Sunday, July 21, 2013

गुरु पूर्णिमा

ॐ नमो नारायणाय
   सत्संग भवन,कोलकता में  पूज्य चरणों के सानिध्य में अनंतबोध
                  


                 काषायवस्त्रभूषाय मालारुद्राक्षधारिणे 
                 श्रीविश्वदेवसंज्ञाय वेदांत गुरवे  नमः ।।
बड़े दुःख के साथ सूचित किया जाता है कि इस बार की गुरु पूर्णिमा गुरु जी के पार्थिव शरीर के साथ न मना कर अपितु समष्टि में व्याप्त गुरु तत्त्व के साथ मनाई जाएगीहमारे पूज्य गुरुदेव ०७ मई २०१३ को व्यष्टि से समष्टि में समाहित हो गए। वो हमारे गुरु ही नहीं अपितु प्राण धन ही थे । आज गुरु जी के न रहने से उनकी महिमा समझ में आ रही इसीलिए मै अनंतबोध बहुत ही पुराने समय से चली आ रही गुरु महिमा को शब्दों में लिखा ही नही लिख पा रहा हु । संत कबीर भी कहते हैं कि
             सब धरती कागज करू, लेखनी सब वनराज। 
             सात समुंद्र की मसि करु, गुरु गुंण लिखा न जाए।।
             यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान। 
             शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।
             गुरु पूर्णिमा के पर्व पर अपने गुरु को सिर्फ याद करने का प्रयास है। गुरू की महिमा बताना तो सूरज को दीपक दिखाने के समान है।             
              अवगमयति कृत्याकृत्यभेदं गुरुर्यो
             भवजलनिधिपोतस्तं विना नास्ति कश्चित्।।
             विदलयति कुबोधं बोधयत्यागमार्थं
             सुगति कुगति मार्गौ पुण्यपापे व्यनक्ति।
             अर्थात् : सच्चा गुरु हमारे मिथ्या बोध को नष्ट कर देता है और हमें शास्त्रों के सच्चे अर्थ का बोध करा देता है। सुगति और कुगति के मार्गों तथा पुण्य और पाप का भेद प्रकट कर देता है, कर्तव्य और अकर्तव्य का भेद समझा देता है, उसके बिना और कोई भी हमें संसार सागर से पार नहीं कर सकता।
             गुरू शिष्य का संबन्ध सेतु के समान होता है। गुरू की कृपा से शिष्य के लक्ष्य का मार्ग आसान होता है। गुरु हमारे अंतर मन को आहत किये बिना हमें सभ्य जीवन जीने योग्य बनाते हैं। दुनिया को देखने का नज़रिया गुरू की कृपा से मिलता है।  
             गुकारस्त्वन्धकारश्च रुकारस्तेज उच्यते ।
             अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः ।।- श्री गुरुगीता
              अर्थ :गुअर्थात अंधकार अथवा अज्ञान एवं रुअर्थात तेज, प्रकाश अथवा ज्ञान । इस बातमें कोई संदेह नहीं कि गुरु ही ब्रह्म हैं जो अज्ञानके अंधकारको दूर करते हैं । इससे ज्ञात होगा कि साधकके जीवनमें गुरुका महत्त्व अनन्य है । इसलिए गुरुप्राप्ति ही साधकका प्रथम ध्येय है । गुरुप्राप्तिसे ही ईश्वरप्राप्ति होती है अथवा यूं कहें कि गुरुप्राप्ति होना ही ईश्वरप्राप्ति है, ईश्वरप्राप्ति अर्थात मोक्षप्राप्ति- मोक्षप्राप्ति अर्थात निरंतर आनंदावस्था । गुरु हमें इस अवस्थातक पहुंचाते हैं । शिष्यको जीवनमुक्त करनेवाले गुरुके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनेके लिए गुरुपूर्णिमा मनाई जाती है । गुरु शब्द की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से की जा सकती है।
जैसे -१. 'गिरति अज्ञानान्धकारम् इति गुरु:'
अर्थात: जो अपने सदुपदेशों के माध्यम से शिष्य के अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट कर देता है, वह गुरु है।
२ . 'गरति सिञ्चति कर्णयोज्र्ञानामृतम् इति गुरु:'
अर्थात: जो शिष्य के कानों में ज्ञानरूपी अमृत का सिंचन करता है, वह गुरु है।
मंत्रदाता को भी गुरु कहा गया है, वस्तुत: मंत्र ही परम गुरु है। गुरु के उपकारों से जिसका हृदय भर आया ऐसे किसी कृतज्ञ मानव ने कहा है। आत्मज्ञानी, आत्म-साक्षात्कारी महापुरुष को जिसने गुरु के रुप में स्वीकार कर लिया हो उसके सौभाग्य का क्या वर्णन किया जाय ? गुरु के बिना तो ज्ञान पाना असंभव ही है। कहते हैं :
                       ईश कृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान । 
                        ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेद पुरान ॥ 
गुरु तो है पूर्णिमा जैसा, और शिष्य है आषाढ़ जैसा। शरद पूर्णिमा का चांद तो सुंदर होता है, क्योंकि आकाश खाली है। वहां शिष्य है ही नहीं, गुरु अकेला है। आषाढ़ में सुंदर हो, तभी कुछ बात है, जहां गुरु बादलों जैसा घिरा हो शिष्यों से। शिष्य सब तरह के हैं, जन्मों-जन्मों के अंधेरे को लेकर आ छाए हैं। वे अंधेरे बादल हैं, आषाढ़ का मौसम हैं। उसमें भी गुरु चांद की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी रोशनी पैदा कर सके, तो ही गुरु है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा! वह गुरु की तरफ भी इशारा है और उसमें शिष्य की तरफ भी इशारा है। और स्वभावत: दोनों का मिलन जहां हो, वहीं कोई सार्थकता है इसीलिए आषाढ़ की पूर्णिमा को ही गुरु पूर्णिमा के रूप में माना जाता है ॥ 
                             ये तो बात रही गुरु महिमा की अब बात करते है शिष्यों के गुरु के प्रति कर्तव्यों की, कुम्भ मेला से पहले पूज्य गुरु जी ने मुझे एक परम दिव्य तपस्थली के दर्शन करवाए और मुझे आज्ञा की कि यहां कुछ निर्माण कार्य होना चाहिए | ये पूज्य गुरुदेव की बचपन की तपोभूमि रही दिव्य भूमि थी | यहां पर ही उनके संन्यास जीवन का आरम्भ हुआ था और परम विरक्त संत परम पूज्य स्वामी सदानंद परम हंस जी ने यहां वर्षो तपस्या की और इस भूमि को तीर्थ बना दिया|
अभी ही कुछ दिन पहले मै यहाँ पुनः आया और मेरे साथ गुरुदेव श्री के परम भक्त तिवारी परिवार के सिरमौर श्री लक्ष्मी कान्त जी तिवारी और श्री कान्त जी तिवारी भी इस पवित्र भूमि का दर्शन करने आये और गुरु जी के संकल्प को पूरा करने का दृढ निश्चय दिखाया तथा यहां विराजमान पूज्य गुरुदेव श्री के साधना काल के सखा और गुरु भाई स्वामी सत्चिदानन्द परमहंस जी से मिलकर यहां गुरु जी की इच्छानुसार निर्माण कार्य के लिए धन राशी अर्पित की |
                          
      पूज्य गुरु देव श्री के बहुत सारे भक्त और शिष्य थे जो गुरु जी को बहुत मानते थे लेकिन उनमे तिवारी परिवार एक ऐसा परिवार जिसको गुरु जी भी बहुत मानते थे तथा इस परिवार के ऊपर हमारे पूर्वजों का भी आशीर्वाद हमेशा रहा है |

यह तपोभूमि परमहंस कुटिया के नाम से जानी जाती है और सीतापुर जिले के दरियापुर गाँव  में स्थित है, यहाँ से नैमिषारण्य तीर्थ भी ज्यादा दूर नहीं है , यह अत्यंत रम्य भूमि है अनेक वृक्षों से घिरी इस  भूमि में साधना के परमाणुओं को आसानी से अनुभूत किया जा सकता है , उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ से मात्र ६० किलोमीटर में स्थित यह भूमि आज भी पूज्य गुरुदेव की साधना की सुगंध से परिपूर्ण है |

Tuesday, June 4, 2013

ब्रह्मलीन आचार्य महामण्डलेश्वर निर्वाणपीठाधीश्वर श्री श्री १००८ स्वामी विश्वदेवानन्द जी की श्री अनंतबोध चैतन्य के साथ वार्तालाप के कुछ अंश ---






महाराज श्री से जन्म समय तथा जन्म स्थान के  बारे मे पूछने पर महाराज श्री का बडा सारगर्भित उत्तर-
पूज्य महाराज  जी फ़रमाते हैं कि साधु का परिचय जन्म के साथ नहीं होता ,साधु अपनी मृत्यु से परिचय  देता हैं। उसका कर्त्तृत्व ही समाज के लिये प्रेरक होता हैं।  वह अपनी समसायमिक व्यवस्था के साथ आने वाली भविष्य की पीढियों के प्रति भी कर्तव्यबोध तथा प्रयोग के द्वारा जीवन के महत् उद्देश्यों व मूल्यों की विरासत प्रस्तुत करता हैं। साधु अपनी मृत्यु के साथ  भी कुछ दे जाता है।यही कारण है कि महात्मा की मृत्युतिथि महोत्सव के रुप मे देखी जाती है, जिससे प्रेरणा लेकर जीवन को उत्सव की भांति जी सके। पुनः इसी प्रश्न के सन्दर्भ में महाराज श्री ने कहा कि जगन्मिथ्यात्त्व के दर्शन में समाहित हुई  आत्मचेतना  स्वयं के परम लक्ष्य ब्रह्मभाव में स्थिति के साथ देह और देह सम्बन्धी व्यवस्थाओं  को लौकिक व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में गौण मानती हुई उस पर ज्यादा चर्चा करने और सुनने में उत्सुक नहीं होती।
यथार्थ जगत् की अपनी एक सत्ता है किन्तु वह बाधित है।जीवन की अनिवार्यता तो उसमें है लेकिन सहज व अन्तिम स्थिति नहीं है। अतःएव उसे गौण रुप में देखते हुए परम लक्ष्य मे प्रतिष्ठित  होना ही दृष्टि का प्रधान  विषय होता है। यही कारण है कि दैहिक व्यस्थाओं मे ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष  की सन्निष्ठा महत्त्व का दर्शन नहीं करती।यही दृष्टि का आधारभूत दर्शन है, जो महापुरुष को सामान्य लौकिक व्यक्ति से अलग करता है । लोक में रह कर भी वह अलौकिक रहता हैं। साधुता के इसी मर्म के साथ साधु सही अर्थों मे साधु होता है एवं साधुता की साधना सिद्ध अन्तिम मञ्जिल तक पहुंचता  है। दैहिक तल पर  कर्त्तृत्व और इस तल से जुड़े हुए वह जन्मादि को ज्यादा प्रशांसित नहीं करता, इस अर्थ मे जयंती आदि के कार्यक्रम भी उसे आकर्षित नहीं कर पाते, दैहिक परिचयों के भूमि से वह अलग होता है बाध्यता है कि वह जगत मे होता है, क्योकि यह ईश्वरीय  व्यवस्था है । सुख-दुख की विभिन्न परिस्थितियों में समता बोध के साथ जीता हुआ सब कुछ सहज से अपनाता हुआ, सत्य ब्रह्म की उर्ध्व   भूमि में समासीन  रहता है। इस अर्थ में दैहिक परिचय उपेक्षणीय मानता है। भक्त, अपनी आस्था से कुछ भी करें श्रध्दा की भाषा और  भावना में किसी भी स्तर से मान की भूमिका  बनायें  लेकिन महापुरूष अमान और उन्मन ही रहते हैं।
सन्देश - आत्मस्थिति अर्थात् ब्रह्मात्मैक्यस्थिति का बोध यही जीवन का परम लक्ष्य  है। जिस लक्ष्य का सन्देश वेदवेदान्त विभिन्न-घोषणाओं के द्वारा देते चले आ रहे  है प्राप्त गुरुज्ञान से उसकी अनुभुति तथा स्मृति बनाये रखते हुये अपनी प्राप्त क्षमता  तथा योग्यता के साथ  ईश्वरीय चेतना के प्रकाश में  व्यक्ति सत्कर्मों का अनुष्ठान करता हुआ सहज दोषों से अपने को अलग रखने का दृढ संकल्प रखें। सत्य एवं सदाचार का अनुसरण करें ।
संकलनकर्ता --- श्री अनन्तबोध चैतन्य

Sunday, June 2, 2013

ब्रह्मलीन निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री विश्वदेवानंद जी महाराज का संक्षिप्त परिचय



               श्री  अनंतबोध चैतन्य गुरु जी कि सेवा में .
जन्म स्थान
         स्वामी श्री का जन्म सन् २६ जनवरी १९४६ ईस्वी में कानपुर, उत्तर प्रदेश के एक नौगवां, (हरचंदखेड़ा) में सनातनधर्मी कान्यकुब्ज ब्राह्मण ' विश्वनाथ शुक्ला जी के परिवार में हुआ |   बचपन में उनका नाम ‘कैलाशनाथ शुक्ला ' रखा गया |
वैराग्य : स्वामी श्री ने सत्य की खोज में  १६ वर्ष की अल्पायु में गृहत्याग कर दिया | वस्तुतः उसके  बाद  वह कभी घर लौट कर नहीं गये और न ही किसी प्रकार का घर से सम्बन्ध रक्खा | उसी वर्ष नैमिषारणय के पास दरिया पुर गाव में स्वामी सदानंद परमहंस जी महाराज जी से साधना सत्संग की इच्छा से मिलने गये | वहां उन्होंने अनेक प्रकार कि साधनाए सीखी और उनमे पारंगत हुए  |
अध्ययन : स्वामी जी ने निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री कृष्णानन्द जी महाराज श्री जी के सानिध्य में संन्यास आश्रम अहमदाबाद में व्याकरण शास्त्र, दर्शन शास्त्र, भागवत, न्यायशास्त्र, वेदांत आदि का  अध्ययन  किया |फिर देहली विश्वविद्यालय से आंग्ल भाषा में स्नातकोत्तर की उपाधि ग्रहण की |
 
तपो जीवन : २०  वर्ष की आयु से हिमालय गमन प्रारंभ कर अखंड साधना, आत्मदर्शन,धर्म सेवा का संकल्प लिया | पंजाब में एक बार भिक्षाठन करते हुए स्वामी जी को किसी विरक्त  महात्मा ने विद्या अर्जन करने कि प्रेरणा की  | एक ढाई गज कपरा एवं दो लंगोटी मात्र रखकर भयंकर शीतोष्ण वर्षा का सहन करना इनका १५  वर्ष की आयु में ही स्वभाव बन गया था | त्रिकाल स्नान, ध्यान, भजन, पूजन, तो चलता ही था | विद्याधययन की गति इतनी तीव्र थी की संपूर्ण वर्ष का पाठ्यक्रम घंटों और दिनों में हृदयंगमकर लेते |
 
संन्यास ग्रहण : स्वामी जी सन १९६२ में परम तपस्वी निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री अतुलानंद जी महाराज श्री से बिधिवत संन्यास ग्रहण कर नर से नारायण  के रूप हो  हुए | तभी से पूर्ण रूप से सन्यासी बन कर "परमहंस परिब्राजकाचार्य १००८ श्री स्वामी विश्वदेवानंद जी  महाराज" कहलाए |
 
देश और विदेश यात्राएँ : सम्पूर्ण देश में पैदल यात्राएँ करते हुए  धर्म प्रचार एवं विश्व कल्याण की भावना से ओतप्रोत पूज्य महाराज जी प्राणी मात्र की सुख शांति के लिए प्रयत्नशील रहने लगे  |  उनकी दृष्टि में समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर भगवान के अंश हैं या रूप हैं | यदि मनुष्य स्वयं शांत और सुखी रहना चाहता है तो औरों को भी शांत और सुखी बनाने का प्रयत्न आवश्यक है उन्होंने जगह जगह जाकर प्रवचन देने आरम्भ किये और जन जन में धर्म और अध्यात्म का प्रकाश किया उन्होंने सारे विश्व को ही एक परिवार की भांति समझा और लोगो में वसुधैव कुटुम्बकम की  भावना का  बीज वपन किया और कहा कि इससे सद्भावना, संघटन, सामंजस्य बढेगा और फिर राष्ट्रीय, अन्तराष्ट्रीय तथा समस्त विश्व का कल्याण होगा |

निर्वाणपीठाधीश्वर के रूप में : सन १९८५ में पूज्य निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री अतुलानंद जी महाराज श्री के ब्रह्मलीन होने का पश्चाद् स्वामी जी को समस्त साधू समाज और श्री पंचायती अखाडा महानिर्वाणी के श्री पञ्च ने गोविन्द मठ कि आचार्य गादी पर बिठाया|
श्री यन्त्र मंदिर का निर्माण : 1985 में महानिर्वाणी अखाड़े के आचार्य बनने के बाद १९९१ में हरिद्वार के कनखल क्षेत्र में महाराज श्री ने विश्व कल्याण की  भावना से विश्व कल्याण साधना यतन की स्थापना की उसके बाद सन २००४ में इसी आश्रम में भगवती त्रिपुर सुन्दरी के अभूतपूर्व मंदिर को बनाने का  संकल्प लिया और सन २०१० के हरिद्वार महाकुम्भ में महाराज श्री का संकल्प साकार हुआ. सम्पूर्ण रूप से श्री यंत्राकार यह लाल पत्थर से निर्मित मंदिर अपने आप में महाराज श्री की कीर्ति पताका  को स्वर्णा अक्षरों में अंकित करने के लिए पर्याप्त है.
शिष्य एवं भक्त गण : महाराज श्री के हजारो नागा संन्यासी शिष्य हुए उनके तीन ब्रह्मचारी शिष्य हुए उनमे से प्रधान  शिष्य श्री  अनंतबोधचैतन्य जो देश विदेश में उनके संकल्पों को पूरा करने में तत्पर है और अध्ययन और अध्यापन में लगे रहते है महाराज श्री ने उनको २०१० में  गोविन्द मठ की  ट्रस्ट में ट्रस्टी के रूप में भी रक्खा| दुसरे  शिष्य शिवात्म चैतन्य जो पठानकोट के आश्रम को देखते है तथा अंतिम तथा तीसरे ब्रह्मचारी  शिष्य निष्कल चैतन्य कढ़ी कलोल के आश्रम को देखते है | महाराज जी के लाखो भक्त गण हुए जिनमे से कोलकता के श्री लक्ष्मी कान्त तिवारी जी अग्रगण्य है | उनके शिष्य अहमदाबाद , दिल्ही बरोडा कोलकाता आदि भारत के सभी शहरों में और  विदेश में अमेरिका , इंग्लेंड , ऑस्ट्रेलिया ,बैंकाक , कनाडा यूरोप तथा अफ्रीका में  लाखों शिष्य महाराज श्री को अपना प्राण धन मानते है.
ब्रह्मलीन : ७ मई २०१३ को हरिद्वार के लिए आते हुए  एक भीषण दुर्घटना में महाराज श्री के प्राण व्यष्ठी से समष्टि में विलीन हो गए | उनके नश्वर पार्थिव शरीर को श्री यन्त्र मंदिर के प्रांगन में रुद्राक्ष के वृक्ष के नीचे श्री भगवती त्रिपुर सुन्दरी की  पावन गोद में भू समाधी दी गई|

         
समाज सेवा में रत, सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय, विश्व के कल्याण का उद्घोष देने वाले भारतीय वैदिक सनातन भावना के अजस्त्र, अवोध, अविरल गति से प्रचार में समस्त जीवन अर्पण करने वाले देव - तुल्य सन्यासी, शास्त्री महारथी, ओजस्वी वक्ता, प्रकाण्ड पंडित, युगदृष्टा श्री निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री विश्वदेवानंद जी महाराज को कोटि - कोटि प्रणाम |